केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस तस्वीर को देखकर आजकल कहा जा रहा है कि भाजपा ने पांच साल में ही महाराज (राजा)को महाराज(खानसामा )बना दिया. लेकिन मैं इस धारणा से इत्तफाक नहीं रखता. मेरी मान्यता है कि भाजपा में आकर भी ज्योतिरादित्य के भीतर का सामंत जैसा पहले था, ठीक वैसा ही आज भी है बल्कि आज पहले के मुकाबले ज्यादा सुकून में है.
सिंधिया परिवार में सौजन्यता, विनम्रता और सामंतवाद का दुर्लभ लक्षण है. मै पिछले पांच दशक से इसे बहुत नजदीक से देख रहा हूँ. ज्योतिरादित्य की दादी राजमाता स्वर्गीय विजयाराजे सिंधिया को ममत्व और त्याग की मूर्ति कहा जाता था. वे थी भी बहुत साधारण. राजपथ छोडकर लोकपथ पर आने वाली वे सिंधिया घराने की पहली महिला थीं. वे साहसी थीं, भावुक थीं और जिद्दी भी. उनकी तुनकमिजाजी खास मौकों पर ही प्रकट होती थी.
राजमाता को भी मैने अपने हाथों से अपने अतिथियों को भोजन परोसते देखा है. 1980के आसपास जब मै नया-नया पत्रकार था तब मैने भी उनके हाथों परोसा भोजन किया है. मुझे तो वे बुंदेली होने के नाते अतिरिक्त तवज्जो देतीं थीं लेकिन उन्हें भाजपा या जनसंघ या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने विनम्र नहीं बनाया था. ये विनम्रता जीवन के तमाम उतार-चढाव की वजह से उनके जीवन में आयी थी. यदि मैं इन उतार -चढावों के बारे में लिखूंगा तो मामला बेहद निजी हो जाएगा. लेकिन संकेतों से समझिये कि उन्हे राजनीति और निजी जीवन में जो खट्टे -मीठे अनुभव मिले, उनसे वे विनम्र हुईं.
राजमाता के पुत्र स्वर्गीय माधवराव सिंधिया तो अपनी माँ और बेटे के मुकाबले हजार गुना अधिक विनम्र और दो हजार गुना ज्यादा सामंत थे. लेकिन उन्हे जनसंघ या कांग्रेस ने विनम्र नहीं बनाया था. वे भी अपनी मां की तरह जीवन की कडवी सच्चाई से दो -चार होते हुए विनम्र बने थे. वे भी अपने मेजवानों को अपने हाथ से खाना परोसने में ही हीं बल्कि निजी आयोजनों में और कुछ भी परोसने में संकोच नहीं करते थे. उनके साथ एक पत्रकार के नाते मेरा लंबा रिश्ता रहा. मैं उनका धुर विरोध रता था किंतु वे मेरे प्रति विनम्र ही रहे.
रही बात ज्योतिरादित्य की तो उन्हे मैने उनकी किशोरावस्था से देखा है. उनका पहला साक्षात्कार उनके पिता के कहने पर आजतक के लिए मैने ही किया था. माधवराव सिंधिया के आकस्मिक निधन के बाद राजनीति में आए ज्योतिरादित्य के साथ पहली बार शिवपुरी में प्रेस से मैने ही उन्हे रूबरू कराया था. लेकिन 2000 के ज्योतिरादित्य और आज के ज्योतिरादित्य में कोई तब्दीली आई हो ऐसा मुझे नहीं लगता. उनकी विनम्रता, उनकी सादगी, उनका सौजन्य परिस्थितिजन्य है. ज्योतिरादित्य को भी ढाई दशक की राजनीति ने बहुत कुछ अभिनय करना सिखा दिया है. उन्होने राजनीति में सम्मान, तिरिष्कार, पराजय, अपमान सब देखा है. भाजपा में जब वे शामिल हुए थे तब घबडाए हुए थे लेकिन वे आज भाजपा में अपने आपको पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते हैं. भाजपा में ज्योतिरादित्य का आत्मविश्वास तब से और बढा है जबसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से अपना दामाद कहा है.
ज्योतिरादित्य को अपने परिवार के साथ जिन लोगों ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के सामने हाथ बांधे खडे देखा था वे भी भ्रम में हैं और वे भी भ्रम में हैं जो समरसता सम्मेलन में ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री के साथ खाना परोसते देख ये समझ बैठे हैं कि महाराजाधिराज खाना परोसने वाले महाराज बन गये हैं. ज्योतिरादित्य बिल्कुल नहीं बदले. उनमें अपनी दादी की तरह बगावत करने का भी जज्बा है और अपने पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की तरह शतुरमुर्गी मुद्रा अपनाने का साहस भी.
ज्योतिरादित्य अब बहुत परिपक्व हो चुके हैं. उनका एक मात्र लक्ष्य कहिये या सपना या महात्वाकांक्षा वो है अपनी आंखों के सामने अपने बेटे को संसद में भेजना. भाजपा में सिंधिया का रास्ता निष्कंटक है. उनके परम विरोधी जयभान सिंह पवैया उनके बगलगीर हैं. प्रभात झा रहे नहीं. नरेंद्र सिंह तोमर ठंडी आग बन चुके हैं. मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव से ज्योतिरादित्य ने पेंगे बढा ही ली है.
पिछले पांच साल में ज्योतिरादित्य ने न केवल भाजपा संगठन में बल्कि आर एस एस में भी जगह बना ली है.. आपको याद होगा कि संघ तो अपने जन्म से ही सिंधिया परिवार का ऋणी है. ज्योतिरादित्य की दादी ने संघ, जनसंघ और भाजपा को तमाम संपत्ति न्यौछावर में दे दी थी.इसलिए फोटो देखकर भ्रम पालना छोड दीजिये मित्रों.
@ राकेश अचल
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